13 मार्च को होगा होलिका दहन: जानिए इसका महत्व, पौराणिक कथा और होलिका कौन थी
भारत में होली का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस पर्व की शुरुआत होलिका दहन से होती है, जिसे फाल्गुन पूर्णिमा की रात को मनाया जाता है। इस वर्ष, 13 मार्च को होलिका दहन किया जाएगा। धार्मिक दृष्टि से यह पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इस लेख में हम जानेंगे कि होलिका दहन क्यों मनाया जाता है, इसकी पौराणिक कथा क्या है और होलिका कौन थी।
होलिका दहन का महत्व
होलिका दहन भारतीय संस्कृति और परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसे प्रतीकात्मक रूप से बुराई के अंत और सद्गुणों की विजय के रूप में देखा जाता है। यह त्योहार हमें यह सिखाता है कि अहंकार, छल-कपट और अन्याय का अंत निश्चित है, और सत्य, धर्म और भक्ति की हमेशा जीत होती है।
होलिका दहन से अगले दिन रंगों की होली खेली जाती है, जिसे ‘धुलेंडी’ या ‘रंगवाली होली’ कहा जाता है। यह पर्व समाज में प्रेम, भाईचारे और सौहार्द का संदेश देता है।
पौराणिक कथा: होलिका कौन थी?
होलिका दहन की कथा पौराणिक ग्रंथों में वर्णित है और इसका संबंध हिरण्यकशिपु और उसके पुत्र भक्त प्रह्लाद से जुड़ा हुआ है।
हिरण्यकशिपु एक शक्तिशाली असुर राजा था, जिसने कठोर तपस्या कर भगवान ब्रह्मा से वरदान प्राप्त किया था कि उसे न तो कोई मनुष्य मार सकता है, न कोई जानवर, न दिन में, न रात में, न घर के अंदर और न बाहर, न किसी शस्त्र से और न ही किसी अस्त्र से। इस वरदान के कारण वह अत्यंत अहंकारी और अत्याचारी हो गया। उसने स्वयं को भगवान घोषित कर दिया और अपने राज्य में भगवान विष्णु की पूजा पर प्रतिबंध लगा दिया।
हालांकि, हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। उसने अपने पिता के आदेशों को मानने से इंकार कर दिया और हर परिस्थिति में भगवान विष्णु की भक्ति करता रहा। यह देखकर हिरण्यकशिपु क्रोधित हो गया और उसने प्रह्लाद को मारने के कई प्रयास किए, लेकिन हर बार भगवान विष्णु की कृपा से वह बच जाता।
अंततः हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से सहायता मांगी। होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में नहीं जल सकती थी। उसने योजना बनाई कि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठ जाएगी, जिससे प्रह्लाद जलकर भस्म हो जाएगा और वह स्वयं बच जाएगी।
लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से उलटा हुआ। होलिका का वरदान केवल तभी कार्य करता था जब वह अकेले आग में बैठती। जब उसने प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश किया, तो वह स्वयं जलकर भस्म हो गई, जबकि प्रह्लाद सुरक्षित बच गया। यह घटना बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक बन गई और तभी से होलिका दहन की परंपरा शुरू हुई।
होलिका दहन की परंपरा और विधि
भारत के विभिन्न हिस्सों में होलिका दहन को अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है, लेकिन इसकी मूल प्रक्रिया लगभग समान होती है।
होलिका दहन की तैयारी:
लकड़ी और उपले इकट्ठा करना: होलिका दहन के लिए पहले से लकड़ियां, उपले और अन्य सामग्री इकट्ठी की जाती हैं।
होलिका की स्थापना: एक निश्चित स्थान पर होलिका का प्रतीक रूप स्थापित किया जाता है। कई जगहों पर होलिका के साथ प्रह्लाद की मूर्ति भी रखी जाती है।
पूजन और परिक्रमा: होलिका दहन से पहले महिलाएं और परिवारजन इसकी पूजा करते हैं और परिक्रमा लगाते हैं। गेंहू की नई बालियों को होलिका में भूनकर प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
अग्नि प्रज्वलन: विधिपूर्वक अग्नि प्रज्वलित की जाती है और बुरी शक्तियों के नाश के लिए प्रार्थना की जाती है।
होलिका दहन से जुड़े वैज्ञानिक और सामाजिक पहलू
पर्यावरणीय दृष्टि: होलिका दहन से वातावरण शुद्ध होता है क्योंकि जलती हुई लकड़ियों से निकलने वाला धुआं हानिकारक कीटाणुओं को नष्ट करता है।
सामाजिक एकता: यह पर्व समाज में भाईचारा और मेलजोल को बढ़ावा देता है। सभी जाति और धर्म के लोग इसमें एकसाथ भाग लेते हैं।
मानसिक और आध्यात्मिक लाभ: यह पर्व हमें यह सिखाता है कि अहंकार और बुरी आदतों को त्यागकर जीवन में सकारात्मकता को अपनाना चाहिए।